बलिदान सिर्फ माँ-बाप के हक़ में ही क्यों?
नमस्कार दोस्तों मेरा नाम अभय रंजन है और मेरे इस ब्लॉग में आपका स्वागत है
दोस्तों, आज बहुत ही गंभीर मुद्दा उठाने वाला हूं, जिस पर पिछले कई सालों से हमारा समाज चुप्पी साधे बैठा है, और जिसको ओछे शब्द में त्याग और बलिदान का नाम दे दिया जाता है
आज का प्रश्न है कि त्याग और बलिदान सिर्फ मां-बाप के हक़ में ही क्यों है?
सबसे पहले एक कहानी सुनाता हूं, किसी एक गांव में एक गरीब किसान जी-तोड़ मेहनत इसलिए कर रहा था, क्योंकि उसका बेटा 1 दिन बड़ा आदमी बने
उसने अपने बेटे की पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी, नतीजा यह हुआ कि उसका बेटा भी विदेश में नौकरी पाने में सफल हुआ
आज स्थिति यह है कि, वह किसान वृद्ध हो चुका है, अब उसे उसके बेटा की जरूरत है, लेकिन उसका बेटा विदेश में नौकरी का हवाला देकर 2 साल में एक बार ही मिलने आया करता है
जब वह यहां रहता है तो कुछ दिनों के लिए उनकी स्थिति सही रहती है, फिर उसी तरह से पुराना दौर वापस आ जाता है
किसान ने तो अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभा दी, अपने त्याग और बलिदान से अपने बच्चे का जीवन बना दिया
पर जब वही त्याग और बलिदान की वारी उस बच्चे की आई, तो वह नौकरी का हवाला देकर पीछा छुड़ा लिया
कुछ दिन बाद किसान की मौत हो गई, अंत समय तक वह अपने बेटे को देखने की आस लगाए हुए था
अब यहां पर साफ तौर पर प्रश्न उठता है कि गलत कौन रहा ?
क्या वह किसान गलत रहा? जो ताउम्र मेहनत-मजदूरी, त्याग-बलिदान करके अपने बेटा को काबिल बनाया, कि वह बुढ़ापे में उसका सहारा बने
या फिर उस लड़के की गलती है, जो सफलता के होड़ में इतना आगे निकल गया कि अपने मां-बाप को ही समय नहीं दे पाया
क्या उस लड़के की ओर से भी बलिदान संभव नहीं हो सकता था?
क्या आज इस दौर में यह इतना मुश्किल हो गया है?
दोस्तों उस किसान की व्यथा हर एक घर में देखने को मिल सकती है
जरूरत है एक सात्विक सोच के साथ बहुत बड़े बदलाव की
वह बदलाव जिसमें अपने बच्चों को अपने मां-बाप की जिम्मेदारी निभाने की बात की जाए
जरूरत है उस बदलाव की जिसमें मां बाप को अपने साथ रखने की बात की जाए, चाहे वह दुनिया का कोई कोना ही क्यों ना हो
जरा सोचिए, हम सब तो मॉल, रेस्टोरेंट, थिएटर में अपने बच्चों के साथ घूम लेते हैं, लेकिन दुनिया की कई ऐसे मां-बाप आज भी है जो अपने वही पुराने घर में एक साधारण जिंदगी जी रहे हैं
दोस्तों, श्रवण कुमार सिर्फ एक कहानी का पात्र ही नहीं थे, बे एक सिख थे जो भारत के हर घर में निभानी चाहिए
जब हमें उनकी जरूरत होती है, तो वह हमारा भरपूर साथ देते हैं और जब हमारी बारी आती है, तो हम कोई ना कोई बहाना का हवाला देकर, अपने स्वार्थ को ऊपर रखकर पीछा छुड़ा लेते हैं
मुझे मालूम है कि यह बात कड़वी लग सकती है लेकिन आज यह हर एक घर की कहानी बन चुका है
और शायद मां-बाप भी इसलिए चुप है क्योंकि वह सपने में भी आपकी परेशानी नहीं देख सकते
वे पिछले कई सालों से आपकी और हमारी कमजोरियों को चुप्पी साध कर दुनिया से छुपा रहे हैं
उनके चुप्पी के आगे आपकी सफलता का कोई मोल नहीं है
दोस्तो, आप सब लोगों से यही आग्रह है कि इस मामले में जितनी भी संभावना बन सकती है, वह करें
अपने मां बाप का जितना हो सके उतना ख्याल रखें
उनको आपकी जरूरत है
आपका अपना
अभय रंजन
Abhy jee ap bhi soche es bat ke bare me ap se koi bdi bhul ho rhi h or jha tk apne jo mudda uthaya h ye bahut hi jenmin mudda h jo aj ke dor me hr ghr me log esi disha ki or bd rhe h eska karn h dolt ka bhukh sukh ki bhukh logo ko nhi chahiye esliye sukh ki bhukh km lgti or dolt ki bhukh jyada lg chuka jisme hum maa bap bhi jimebar h ki aisi sichha ki trf bche ko bhej rhe h
Jai hind
Randhir kumar
Bangladesh